Sunday 29 October 2023

कहीं पहुंचने के लिए... कहीं से निकलना ही पड़ता है

जीवन एक सफर है और हममें से हर किसी की कहानी एक सफरनामा. हममें से हर कोई कहीं न कहीं पहुंचने के सफर पर है. किसी की मंजिल कुछ है तो किसी की मंजिल कुछ और. लेकिन सफर सबके हिस्से में बराबर है. खुशियां हर किसी के हिस्से में हो या न हो लेकिन मुश्किलें हर किसी के हिस्से में बराबर हैं.

ये जो गहरे सन्नाटे हैं,

वक्त ने सबको ही बांटे हैं,

थोड़ा गम है सबका किस्सा,

थोड़ी धूप है सबका हिस्सा...


मुश्किलें हर किसी के हिस्से में हैं. भले ही वे अलग-अलग रूपों में हों या जीवन के अलग-अलग फेज में हमें वो परेशान करती हैं. लेकिन मुश्किलों से जिंदगी रुकती तो नहीं है. हम सबको जीवन में कहीं न कहीं पहुंचना है. कुछ नए इरादे, कुछ नए मकसद हासिल करने हैं और जीवन को बेहतरीन पल देने हैं. कुछ न कुछ नया हासिल करने की तमन्ना हम सबको हमेशा सफर में बनाए रखती है.

सोचिए कि आज अगर हम जहां हैं अगर वही पड़े रहें तो क्या नजारा होगा. जीवन का कोई मकसद ही नहीं रह जाएगा. लाइफ कितनी बोरिंग हो जाएगी न? इसीलिए हम सबको समय-समय पर अपने कंफर्ट जोन को तोड़कर आगे बढ़ना जरूरी है. लेकिन ये कंफर्ट जोन छोड़ना इतना आसान नहीं होता.   


सामान्य रूप में चल रहे जीवन के ढर्रे से अलग कुछ भी करना हो तो उसके लिए खुद को झटके देने होते हैं. लेकिन झटके वाला वह कदम ही हमारे सफलता के सफर को आरंभ करता है. क्योंकि, अगर कहीं जाना है तो उसके लिए कहीं न कहीं से शुरुआत करनी पड़ती है. सफलता की ओर पहला कदम इसलिए मुश्किल होता है, क्योंकि इसके पूर्व हमने कभी वह कदम नहीं बढ़ाया होता है.


मंजिल हम तक चल कर नहीं आती है, हमें मंजिल की ओर जाना पड़ता है. एक ही स्थान पर रहने से हम सफलता नहीं हासिल कर सकते हैं. सफलता की मंजिल की ओर एक कदम बढ़ा कर शुरुआत तो करें, और देखें कैसे आप धीरे–धीरे अपनी मंजिल के करीब पहुंचते जाएंगे.

इस सफर में सबके हिस्से में धूप-छांव बराबर है. लेकिन जिंदगी कहीं रुकने का नाम तो नहीं ही है. इसलिए हम सब अपने हालात और सपनों के मुताबिक अपने-अपने रफ्तार में चलते रहते हैं.  परिवर्तनों से काहे का डर. अगर हम परिवर्तनों से डरने लगें तो हमारे लिए कोई भी नया कदम उठाना मुश्किल हो जाएगा. कहते हैं कि बेहतरीन दिनों के लिए मुश्किलों दिनों से भी जूझना पड़ता है. कहीं पहुंचने के लिए कहीं से निकलना पड़ता है. जीवन में कंफर्ट जोन तोड़ना क्यों जरूरी है इसे इस कहानी से समझिए.

यह कहानी है गिद्धों के एक समूह की. एक बार गिद्धों का एक झुण्ड उड़ता हुआ एक टापू पर पहुंच गया. यह टापू समुद्र के एकदम बीचों-बीच में था. इस टापू पर ढेर सारी मछलियां, मेंढक और समुद्री जीव थे. ऐसे में गिद्धों के खाने की भी कोई कमी नहीं थी. इसके साथ ही गिद्धों का शिकार करने वाला कोई जंगली जानवर भी यहां मौजूद नहीं था. इस टापू पर पहुंचकर गिद्ध बेहद खुश थे. उन्होंने इतना सुखमय जीवन कभी नहीं देखा था. इस झुण्ड में ज्यादातर गिद्ध युवा थे. उन सभी ने सोचा कि वो यहीं रहेंगे और इस आरामदायक जीवन को छोड़कर कहीं नहीं जाएंगे.

इन युवा गिद्धों के बीच एक बूढ़ा गिद्ध भी मौजूद था. युवा गिद्धों की बात सुनकर वह चिंता में पड़ गया. उसने सोचा कि आरामदायक जीवन इनके जीवन पर क्या असर डालेगा? ये सभी जीवन का वास्तविक अर्थ नहीं समझ पाएंगे. साथ ही जब तक इन्हें चुनौती का सामना नहीं करना पड़ेगा तब तक ये मुकाबला करना कैसे सीखेंगे. काफी देर सोच-विचार करने के बाद एक दिन बूढ़े गिद्ध ने सभी गिद्धों की सभा बुलाई. उसने अपनी चिंता सभी को बताई. उसने कहा कि इस टापू पर हम सभी को बहुत दिन हो गए अब हमें वापस उसी जंगल में चलना चाहिए. बिना चुनौती के हम सभी अपना जीवन जी रहे हैं. क्योंकि बिना चुनौतियों के हम मुसीबतों के लिए तैयार नहीं होंगे.

हालांकि, युवा गिद्धों ने यह अनसुनी कर दी. उन सभी को लगा कि गिद्ध अब बुढ्ढा हो गया और बहकी-बहकी बातें कर रहा है. उन सभी ने आराम की जिंदगी छोड़कर वहां जाने से मना कर दिया. फिर भी बुढ़े गिद्ध ने सभी को समझाने की कोशिश की. लेकिन कोई भी नहीं माना. बूढ़े गिद्ध ने कहा कि तुम सभी उड़ना भूल चुके हो. लेकिन फिर भी किसी ने बूढ़े गिद्ध की बात नहीं मानी. ऐसे में सभी को छोड़कर बूढ़ा गिद्ध अकेला ही वहां से चला गया.

कुछ महीने बाद वो बूढ़ा गिद्ध वापस उस टापू पर युवा गिद्धों की तलाश में गया. टापू पर पहुंचकर वह अचंभित रह गया. वहां हर तरफ गिद्धों की लाशें पड़ी थीं. वहीं, कई गिद्ध तो ऐसे भी थे जो लहू-लुहान और घायल पड़े हुए थे. तभी बूढ़े गिद्ध ने एक गिद्ध से पूछा, “यह सब कैसे हुआ और यह हालत कैसे हुई?”.

उस गिद्ध ने बताया कि हम सभी मजे से जिंदगी जी रहे थे लेकिन एक दिन यहां एक जहाज आया टापू पर चीते छोड़ गया. कुछ दिन तक तो चीते ने कुछ नहीं किया. लेकिन हम उड़ना भूल चुके थे. साथ ही हमारे पंजे और नाखुन भी कमजोर हो गए थे. हम किसी पर भी हमला भी नहीं कर सकते थे. अपना बचाव भी नहीं कर पा रहे थे. ऐसे में चीतों ने हमें एक-एक कर मारकर खाना शुरू कर दिया. इसी कारण हमारा यह हाल हो गया.

इस कहानी से क्या सीख मिलती है? यही कि हमें समय-समय पर जीवन में हमारा कम्फर्ट जोन छोड़कर बाहर आना जरूरी होता है. अगर ऐसा नहीं किया जाए तो हमारे कौशल में जंग लगने में देर नहीं लगती है.

...सफर की हद है वहां तक कि कुछ निशां रहे,

चले चलो के जहां तक ये आसमां रहे,

ये क्या कि उठाए कदम और आ गई मंज़िल,

मजा तो तब है, के पैरो में कुछ थकान रहे... 

Tuesday 24 October 2023

मुश्किलें एक मोड़ हैं, जिंदगी का फुलस्टॉप नहीं!

विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े कहते हैं कि दुनियाभर में 28 करोड़ लोग डिप्रेशन के शिकार हैं. यानी मानसिक तनाव का सामना कर रहे हैं. और अगर एक्सपर्ट्स की मानें तो इससे भी अधिक लोग ऐसे हैं जिन्हें ये परेशानी तो है लेकिन वे इसकी पहचान कर पाने में या तो सक्षम नहीं हैं या मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को लेकर सामाजिक टैबू के चलते इसे स्वीकार नहीं करते और इनके इलाज से बचते रहते हैं. भारत में भी 5.66 करोड़ लोग डिप्रेशन के शिकार हैं. 


डिप्रेशन के शिकार लोग सुसाइड भी सबसे ज्यादा करते हैं. दुनिया भर में एक साल में 8 लाख लोग सुसाइड कर अपनी जान दे देते हैं जिनमें से 20 फीसदी यानी एक लाख 60 हजार के आसपास भारतीय थे. यानी देश में औसतन हर घंटे 18 और रोज 450 लोग सुसाइड कर लेते हैं. परेशानियां जो भी रही हों लेकिन ये समस्याओं का हल तो नहीं है. आखिर ऐसे क्या हालात आते हैं कि लोग जीवन खत्म कर लेने का फैसला कर लेते हैं.

आखिर, मन के अंदर ऐसी कौन सी हलचल है जो डिप्रेशन-एंजाइटी जैसी समस्याओं को जन्म देती हैं? क्या इनका कोई हल नहीं है? क्या हमारे परिवार और समाज का तानाबाना इतना कमजोर हो गया है कि हम मुश्किलों में उलझते चले जाते हैं लेकिन किसी अपने को अपने दिल का हाल बता नहीं पाते? क्या हम इन मुश्किल हालात से उबर सकते हैं? दरअसल मुश्किल हालात में हमें ये सोचने पर फोकस करना चाहिए कि हल क्या है? न कि परेशानी से पीछा छुड़ाने के लिए खुदकुशी का रास्ता अपनाना उचित है.

मुश्किलें हम सब की जिंदगी में आती हैं. कई बार लोग उनके सामने बिखर से जाते हैं तो कई बार हम उनपर जीत हासिल कर पहले से भी मजबूत होकर उभरते हैं. कई लोगों के लिए मुश्किल वक्त फुल स्टॉप साबित होती है तो कई लोगों के लिए मुश्किल वक्त नए सिरे से उभरने का मौका साबित होती है. ये हमपर निर्भर करता है कि हम हालात को किस तरीके से संभालने की कोशिश करते हैं.

जिंदगी में जो लोग मुश्किलों के आगे सरेंडर कर देते हैं उनसे बस इतना कहना चाहेंगे कि- न एक जीत हमारा आखिरी पड़ाव हो सकती है और न एक हार. मुश्किलों के पार ही सफलता की मंजिल है. ये बिल्कुल एक अंधेरी सुरंग की भांति है जिसके दूसरे सिरे पर रोशनी भरी राह है लेकिन उस तक पहुंचने के लिए सुरंग का अंधेरा भरा रास्ता तो पार करना ही होगा. जिंदगी बिल्कुल एक नदी की तरह है. नदी का उद्गम मुश्किल पहाड़ी इलाके में होती है, वहां से कंकरीली-पथरीली राह तय कर नदियां लोगों की प्यास मिटाती लंबी दूरी तय करती है और तब जाकर समंदर के साथ एकाकार हो पाती हैं. ऐसी ही हमारी जिंदगी भी है. मुश्किल राह के आगे सफलता की मंजिल है और उसे पाने के लिए मुश्किलों का पहाड़ तो पार करना ही होगा.

दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं, एक वे जो छोटी सी प्रॉब्लम आ आने पर घबरा जाते हैं और दुखी हो जाते हैं. दूसरे वह लोग होते हैं, चाहे कितनी भी बड़ी मुश्किलें उनकी जिंदगी में आ जाए लेकिन वह हमेशा खुश रहते हैं. हर प्रॉब्लम में अपने आप को संभाल लेते हैं.

एक लड़के की कहानी आपको बताते हैं. यह कहानी ऐसी है कि आपके जीवन में हजारों मुश्किलें या बड़ी परेशानियां क्यों ना आ जाएं लेकिन यह कहानी आपको हर मुश्किल में रहना और मुस्कुराना सिखा देगी.

एक 19 साल का लड़का सरकारी नौकरी के इंटरव्यू में गया. वहां उसे एक सवाल पूछा गया कि थायरॉइड ग्रंथि मनुष्य के शरीर में कहां होती है? उसे नहीं पता था. उसने कहा कि थायरॉइड घुटनों में होती है. उसे नॉकरी नही मिली. ये झटका उसे चुभ गया.

इंटरव्यू से बाहर निकल कर वह थाइरॉइड के बारे में सोच रहा था. उस लड़के ने पूरे 10 साल तक थाइरॉइड पर पीएचडी की, कारोबार शुरू किया और बड़ी थायरॉइड मेडिसिन कंपनी का मालिक बन गया. उसने एक मुश्किल को, एक झटके को अपनी सफलता का आधार बना लिया.

Sunday 22 October 2023

हम अपने लिए फैसलों के साथ क्या करते हैं?

हम इंसान अक्सर जीवन में नयापन की तलाश में लगे रहते हैं. इस दौरान हम कई चीजों से होकर गुजरते हैं. कुछ चीजें और आदतें हमारे साथ हो लेती हैं और कुछ चीजें समय के साथ पीछे छूट जाती हैं. हमेशा नई चीजें और आदतें हमें आकर्षित करती हैं लेकिन समय के साथ फिर हम खुद को उसी बोझिल स्थिति में पाते हैं और फिर नयापन की तलाश शुरू कर देते हैं. आखिर ये समयचक्र क्यों चलते रहता है और हम अक्सर जीवन के उसी मोड़ पर खुद को क्यों पाते हैं जहां से हम कुछ समय पहले गुजर चुके होते हैं? इसके पीछे हमारे फैसलों और हमारी आदतों की एक लंबी श्रृंखला काम कर रही होती है जिन्हें हम-अपनाते हैं और कभी-कभी बीच राह में छोड़ते चले जाते हैं.



आइए, इसे एक नजरिए से देखने की कोशिश करते हैं. क्या आपको पता है कि साल के पहले दिन बल्कि साल शुरू होने से पहले वाली रात... दुनिया भर में सबसे अधिक चीजें तय होती हैं, सबसे सख्त फैसले होते हैं. अमेरिका में करीब 38 फीसदी लोग इस एक रात को कोई न कोई फैसला लेते हैं खुद को लेकर. यानी 38 फीसदी लोग न्यू ईयर रिजॉलुशन लेते हैं. हमारे देश में भी कमोबेश आंकड़ा कुछ ऐसा ही होगा. सबसे पहले 4000 साल पहले बेबिलोन सभ्यता के लोगों ने इस परंपरा की शुरुआत की थी. तबसे आजतक न्यू ईयर रिजॉलुशन की ये परंपरा दुनियाभर में ऐसे ही चल रही है.

इसमें कई मजेदार फैक्ट हैं. न्यू ईयर रिजॉलुशन लेने वाले 52 फीसदी लोग एक सिंगल रिजॉलुशन लेते हैं, जबकि 47 फीसदी लोग एक से अधिक रिजॉलुशन लेते हैं. इनमें से 48 फीसदी लोग स्वास्थ्य संबंधी रिजॉलुशन लेते हैं जैसे कि ज्यादा व्यायाम करेंगे, टहलना शुरू करेंगे, खाना कंट्रोल में और पौष्टिक खाएंगे..आदि-आदि. 23 फीसदी लोग करियर एंबिशन को लेकर रिजॉलुशन लेते हैं, 19 फीसदी लोग शराब और दूसरी नशाखोरी छोड़ने को लेकर रिजॉलुशन लेते हैं. इनमें से 30 फीसदी के करीब लोग बिजनेस, फाइनेंसिंग, सेविंग, इनवेंस्टमेंट से जुड़े रिजॉलुशन तय करते हैं. कुछ फीसदी लोग परिवार को ज्यादा समय देने, सोशल बॉन्डिंग मजबूत करने जैसे रिजॉलुशन लेते हैं. कुछ फीसदी लोग मेंटल हेल्थ, हीलिंग, नकारात्मक बातों से दूर रहने जैसे साइकोलॉजिकल रिजॉलुशन लेते हैं...

ये सब आंकड़े देखने में कितने मजेदार लग रहे हैं. हम कितने कमिटेड दिख रहे हैं. साल बदलते ही हम नए संकल्प लेकर आगे बढ़ने को संकल्पित दिख रहे हैं. लेकिन आपको बता दें कि हम करोड़ों-अरबों लोग ये काम हर नए साल की रात करते हैं. हर साल फिर कुछ दिन बीतते ही ये आंकड़े बदलते चले जाते हैं. आप भी गौर कीजिएगा अपने पिछले कुछ सालों के अनुभवों को याद करके कुछ ऐसी ही वास्तविकता आपके सामने भी होगी.

अब आपको बताते हैं कि अच्छे से शुरू हुए साल में इन तय किए हुए फैसलों का अगले कुछ दिनों में क्या होता है? हममें से हर चार में से एक शख्स अगले एक हफ्ते में अपने रिजॉलुशन से डिग जाता है, यानी 25 फीसदी एक हफ्ते में अपने तय किए फैसले से हट चुके होते हैं. फरवरी आते-आते 43 फीसदी लोग अपने पुराने ढर्रे पर आ चुके होते हैं. दूसरा महीना बीतते-बीतते 81 फीसदी लोग अपने रिजॉलुशन को भूल चुके होते हैं और साल के आखिर तक केवल 9 फीसदी लोग अपने तय किए टारगेट को हासिल कर पाते हैं यानी 91 फीसदी लोग उस काम को पूरा नहीं कर पाते जो उन्होंने खुद के लिए तय किया था.

ये हश्र हम अपने खुद के लिए फैसलों के साथ करते हैं. और आखिरकार एक बोझिल शाम को हम बैठकर सोचते हैं कि लाइफ कितनी बोरिंग है. कुछ नया नहीं हो रहा है. फिर हम चल पड़ते हैं कुछ एंसाइटिंग की तलाश में. फिर हम कई सारे एक्साइटमेंट्स अपने आसपास जुटा लेते हैं ताकि फिर नया साल आने पर हम उसे छोड़ने का रिजॉलुशन सेट कर सकें. ऐसा हम पिछले कई साल से कर रहे हैं और हमारे जैसी कई पीढ़ियां पिछले कई दशकों से ऐसा ही करती रही हैं.

Saturday 21 October 2023

एक पुत्र को पिता की पाती...


'कुछ लोग ऐसे परिवारों में जन्म लेते हैं जहां शिक्षा को बढ़ावा दिया जाता है, जबकि कुछ अन्य इसके विरुद्ध होते हैं. कुछ का जन्म समृद्ध अर्थव्यवस्था में होता है जहां उद्मिता को बढ़ावा दिया जाता है, जबकि कुछ का जन्म युद्ध और अभाव में होता है. मैं तुम्हें सफल होते देखना चाहता हूं. और मैं चाहता हूं कि तुम इसे खुद हासिल करो. लेकिन याद रखो कि सफलता हमेशा मेहनत के कारण नहीं मिलती, और गरीबी हमेशा आलस के कारण नहीं होती. जब तुम दूसरों को, और साथ में खुद को आंकने लगो, यह हमेशा ध्यान में रखना.'

-एक पुत्र को पिता की पाती...

सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट...

  ओरिजिन ऑफ स्पेशिज में 'सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट...' की अपनी थ्योरी लिखते हुए डार्विन लिखते हैं- 'हर प्राणी को खाने के लिए भोजन व ...