महाभारत कुरुक्षेत्र में लड़ा गया केवल एक युद्ध नहीं था. जिसे केवल दो सेनाओं और योद्धाओं ने लड़ा हो, बल्कि ये वो महासंग्राम था जिसे उस समय उपस्थित हर एक व्यक्ति ने अपने अंतरद्वंद के रूप में, स्वयं से ही लड़ा था. कौन किसके पक्ष में खड़ा हुआ, इसका निर्धारण भी किसी और ने नहीं बल्कि स्वयं उसी की इच्छाओं, कुंठाओं, महत्वाकांक्षाओं और मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था ने किया था. युद्ध के पहले भी बहुत कुछ ऐसा घटा था, जिसके परिणामस्वरूप ये भीषण संग्राम हुआ, जिसे धर्मयुद्ध का नाम दिया गया.
धर्मयुद्ध धन-संपत्ति या सत्तात्मक अधिकारों के लिए नहीं होते, बल्कि दो मानसिकताओं के मध्य होते हैं. मानवीय मूल्यों और महत्वकांक्षाओं के मध्य होते हैं. महाभारत प्रतिक्रिया और प्रतिशोधों की ऐसी शृंखला है जिसमें हर बार कुछ नई कड़ियां जुड़ती रहीं. कारण कुछ भी रहे हों, परंतु इसे रोकने में कोई समर्थ नहीं दिखा. एक ओर स्वयं के बनाए घेरों में कैद भीष्म, द्रोण जैसे शूरवीरों की साम्थर्य बेबस दिखी तो विदूर का नीतिज्ञान राज परिवार की निजी महत्वाकांक्षाओं के नीचे दबकर रह जाता है. जिनमें अन्याय को रोकने की साम्थर्य थी, वो मौन दर्शक बने रहे. और अपनी कमियां ये कहकर छुपाते रहे कि शक्ति और सत्ता जो करे वही धर्म है... मगर समय मौन नहीं रहता.
द्रौपदी के अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर युद्धभूमि में खोजे गये. गांधारी की आंखों पर बंधी पट्टी का परिणाम कुरुवंश के पतन के रूप में सामने आता है. महाभारत के अधिकांश पात्र, स्वयं के अंतर्विरोधों से जूझते और मानवीय कमजोरियों को ढोते प्रतीत होते हैं. और कुछ वैचारिक उत्कृष्टता द्वारा इनसे पार पाने में संघर्षरत्त नजर आते हैं. उनमें सिर्फ श्रीकृष्ण के रूप में ही एक महामानव नजर आता है. जो प्रेम का पाठ पढ़ाते हुए दीन-दुखियों का उद्धार करता है. निरंकुश आतताइयों का विनाश करता है. उसे न सत्ता का मोह है, न कोई आसक्ति. और जीवन का उद्देश्य केवल मानव मात्र का कल्याण करना. धर्म के निमित्त शक्ति और साम्थर्य का इससे सुंदर उपयोग और क्या हो सकता है.
असल में मानव कमजोरियों पर विजय की घोषणा ही देवत्व है. श्रीकृष्ण का संपूर्ण जीवन यही कहता है कि वो धर्म, वो जड़ता, वो ज्ञान... वो सब कुछ त्याग दो जो मनुष्य के मनुष्य बने रहने में बाधक हो, अनिष्टकारी हो. केवल प्रेम का वरण करो. उससे अधिक सुंदर और सच्ची कोई वस्तु इस संसार में दूसरी नहीं है.
आज आदमी छोटी-छोटी महाभारतें अपने घरों में, जीवन में सहता और देखता आ रहा है. इस टूटन, इस विखराव का असर उसके जीवन में साफ दिखाई देता है. इन सब द्वंदों के पार जब जीवन की सार्थकता और व्यर्थता का आकलन होता है तो आप किस पक्ष में खड़े होंगे ये द्वंद के दौर में आपके चुने हुए विकल्प तय करते हैं. सच का पथ आसान नहीं है लेकिन आसान पथ चुनना भी क्यों है?
जयशंकर प्रसाद की पंक्तियों के साथ इस लेख को विराम देता हूं..
'वह पथ क्या, पथिक कुशलता क्या,
जिस पथ पर बिखरे शूल न हों,
नाविक की धैर्य परीक्षा क्या,
जब धाराएं प्रतिकूल न हों!'